कैदी और कोयल
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Kaidi aur koyal |
मै नहीं चाहता ए कोयल, की इस बीरही को तु जलाओ।
मै रात। भर जलु बिरह में, तु सुबह में गाना गाओ।।
हम तो कैदी कैद
में रहते, तु तो बहुत दूर जाती हो।
तुम हो कोयल मन
लुभावनी, तु क्यों हम सताती हो।।
कैदी और कोकिल में बोलो, मेल कहां हो सकती है।
मेरे पास वो पंख कहां, जाने की कहां शक्ति है।।
हम यहां से जाना
चाहें, तु स्वयं क्यों आती हो।
इस बिरही की बिरह
व्यथा को, तु क्यों याद दिलाती हो।।
ए कोयल तु जब भी जाना, एक संदेश तु लेती जाना।
इस बिरही की बिरह व्यथा को, उस बिरहन तक पहुंचाना।।
जिस तरह भवर में
फंसा एक नाविक, चाह लीये मन
साहील की।
हम बिरही जलकर भी
जीते, चाह लिए मन मंज़िल की।।
दूर देश जो भी हो मेरा, यह संदेश पहुंचा देना।
कौन खुशी और क्या ग़म मेरा, जाकर के बतला देना।।
बैजनाथ को याद
नहीं कुछ, याद पड़े तो तु बतलाना।
एक उपकार तु
मुझपर करना, फिर वापस तु लौट
ना आना।।
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